80 के चश्मे से दुनिया: हरिकृष्ण रावल

 

        फोटो: हरिकृष्ण रावल (लेखक)

आज मैं बाज़ार से निकल रहा था। धनतेरस का दिन था। बाज़ार में बहुत भीड़ थी और दुकानें नई दुल्हन की तरह सजी थी। लोग अपनी ज़रूरत और शौक़ कि कई आवश्यक और अनावश्यक चीज़ें ख़रीद रहे थे। ये सब देख अचानक मुझे बचपन की दिवाली याद आ गई और मुँह से निकला ‘वाह वह भी क्या दिवाली थी’।

हमारे ज़माने में दिवाली की तैयारियां कई दिन पहले से ही शुरू हो जाती थी। पुरुष बाहर का काम संभालते थे, महिलाएँ रसोई का, छोटी लड़कियों पूजा का सामान तैयार करती थी और हम लड़के सजावट की तैयारी करते थे। सबके काम बँधे थे और आस पड़ोस के लोग आकर भी काम में हाथ बंटा दिया करते थे।

घर कच्चे पक्के होते थे पर रिश्ते मज़बूत। घर की कच्ची रसोई के एक हिस्से में मंदिर हुआ करता था जिसके आस पास दिवाली की पूजा का स्थान बनाया जाता था। इस हिस्से को पहले अच्छी तरह मिट्टी से लेप लिया जाता था फिर पूजा की तैयारी की जाती थी थी। दिवाली पूजा के लिए घर के सभी चाँदी के बर्तन बाहर निकल आते थे और सभी बच्चों को उन्हें चमकाने का काम सौंपा जाता था। उस ज़माने में चाँदी की क़ीमत बहुत थी और चाँदी के बर्तनों का अपने हाथ में होना हमें एक राजा सा एहसास कराता था। पूजा के स्थान में रंगीन चित्र और लक्ष्मीजी के पैरों के निशान की आकृति बनायी जाती थी जिसने आजकल रंगोली का प्रतिरूप ले लिया है। 

पूजा की थाली को सजाने का भी एक अलग अनुभव था। दादी थाली में चाँदी का गिलास रख कच्चा दूध डालती और उसमें गंगा जल मिला कर चाँदी के सिक्के डालती, चाची थाली को रंगीन दीपकों से सजाती और हम बच्चे आस पड़ोस से रंग बिरंगे फूल इकट्ठे कर थाली को और सुंदर बनाने की कोशिश करते। थाली के पास एक मिट्टी का चडोल बनाकर रखा जाता जिसके साथ गणेश कि मूर्ति और छतरियों वाले मिट्टी के घोड़े भी रखे जाते थे। 

इसी बीच दूसरी ओर पूजा के प्रसाद की तैयारियां भी चल रही होती थी जिसमें चाची टिकड़ी बनाने के लिए आटा गूँध रही होती तो पड़ोस की मौसी उसको हाथ से दबाकर गोल आकार देकर घी में डालती, चाशनी तैयार करने की ज़िम्मेदारी माँ के पास होती। दिवाली की पूजा के लिए हम सब की मनपसंद मेवे वाली खीर भी तैयार की जाती जिसमें चाची अपना जादू भी मिलाती थी। कई साल तक हम बच्चे यही मानते रहे कि उनकी खीर खाने से ही हम लंबे और ताक़तवर हो रहे हैं।

उस ज़माने में बल्ब की लड़ियाँ नहीं होती थी और हम सब बच्चे पतंग के काग़ज़ से रंग बिरंगे फूल बनाकर झालर तैयार करते थे जिससे मंदिर और आंगन को सजाया जाता था। इन झालरों में कभी कभी तो हम भगवान, जीव - जन्तुओं और फूल पत्तियों के रंगीन चित्र बनाकर उसके कटआउट भी ज़ोड़ देते थे क्योंकि सबसे अच्छी झालर बनाने वाले बच्चे को घर के बुजुर्गों से ईनाम भी मिलता था। 

आज दिवाली घर की चारदीवारी में सिमट कर रह गई है। मिठाइयां बहुत हैं पर उसमें अपनेपन की चाशनी नहीं है। क्यूँ ना एक बार फिर पुरानी दिवाली मनाई जाए और त्योहार में प्यार की चाशनी मिलाई जाए।



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