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राष्ट्रीय पोषण माह और अक्षयपात्र

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लेखक: अशोक मिश्र (वरिष्ठ पत्रकार) पोषण अभियान के अंतर्गत हर साल सितंबर के महीने में राष्ट्रीय पोषण माह मनाया जाता है। अक्षयपात्र फाउंडेशन इस अभियान को सफल बनाने के लिए केंद्र की मोदी व प्रदेश की योगी सरकार के साथ मिलकर लगातार काम कर रहा है। देश के 15 राज्यों व कुछ केंद्र शासित प्रदेश में अक्षयपात्र 67 किचन के माध्यम से लगभग 22 लाख स्कूली बच्चों को दोपहर का गरमा गरम पौष्टिक भोजन उपलब्ध करा रहा है। उत्तर प्रदेश में अक्षय पात्र फाउंडेशन का किचन मथुरा, लखनऊ, वाराणसी व गोरखपुर में काम कर रहा है। लखनऊ में जहां 1472 स्कूलों के करीब सवा लाख बच्चों को भोजन दिया जा रहा है वहीं मथुरा में भी दो हजार स्कूलों के करीब सवा लाख बच्चों को दोपहर का पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है। वाराणसी में अक्षय पात्र किचन का शुभारंभ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कर कमलों से 7 जुलाई 2022 में हुआ था। यहां भी करीब पचास हजार से बच्चों को दोपहर का गरमा गरम भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है। आने वाले समय में यह संख्या और बढ़ेगी।  गोरखपुर में करीब डेढ़ सौ स्कूलों के 25-30 हजार बच्चों को दोपहर का पौष्टिक भोजन दिया जा रहा है। लख

हाकी के जादूगर ध्यानचंद की पुण्य तिथि पर विशेष

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     (प्रस्तुति:: धीरेन्द्र मणि त्रिपाठी) संस्कृति, धर्म, संस्कार के संगम प्रयागराज मे भारत के खेलो की गंगा को अवतरित करने वाले भगीरथ ध्यान सिंह् का जन्म 29 अगस्त 1905 को सोमेश्वर दत्त सिंह के घर हुआ था। पिता सेना मे थे परिवार बडा था पिता को कम वेतन मिलता था घर का संचालन  कठिनाई से होता था घर की आर्थिक स्थिति खराब थी और इसलिये 14वर्ष की छोटी सी आयु मे ध्यान सिंह् बाल सैनिक स्पाइस के रूप में सेना मे प्रथम ब्राहमण रेजिमेंट में भर्ती  हो गये। यहां ध्यान सिंह् सैनिक छावनी में विभिन्न खेलो के अभ्यास को करने लगे तब ही ध्यानचंद पर सूबेदार बाले तिवारी की नजर पडी और उन्होंने ध्यान सिंह को हाकी खेल को खेलने के लिये कहा और फिर वे ध्यान सिंह को हाकी की बारीकियों को सिखाते और बताते और समझाते की ध्यान ’हाँकी टीम गेम है अकेले नही खेला जाता सबको साथ लेकर खेला जाता है आगे चलकर बस यही मन्त्र ध्यान सिंह के जीवन का मूल  मंत्र हो गया। ध्यान सिंह दोपहर में जब सब सैनिक अपनी बैरिको मे आराम कर रहे  होते तब ध्यान सिंह तपती धुप मे नंगे पैर हाकी का अकेले ही अभ्यास करते और दिन तो क्या वे रात मे चांद की रोशनी मे भी

एनजीओ ! और कितने उपचार?

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(के. विक्रम राव) एनजीओ (गैरसरकारी संस्थान) की जनसेवा पद्धति पर नजर तिरछी करते हुये एक बार फिर कल (9 नवम्बर 2021) सर्वाेच्च न्यायालय ने अपना फिक्र व्यक्त किया। आदेश दिया कि हर दान की राशि के व्यय करने का उद्देश्य बताना लाजिमी है। राजग सरकार द्वारा विदेशी वित्तीय चन्दे से संबंधी कानून के संशोधन नियमों को कुछ एनजीओ ने चुनौती दी थी। उनकी याचिका पर अदालत में विचार हुआ। इस संदर्भ में मेरी एक निजी व्यथा का उल्लेख कर दूं। जब भी मैं सेवाग्राम (वार्धा), जहां मेरा बचपन गुजरा, तीर्थ करने जाता हूं तो पाता हूं कि इस नगर में एनजीओ की संख्या ज्यादा बढ़ गयी है। इन्होंने धनराशि पाने हेतु अपना पता बापू द्वारा पुनीत की गयी इस भूमि का ही दिया है। देश दुनिया में गांधी जी (राष्ट्रपिता, न कि कांग्रेसी) का नाम खूब भुनाया जाता है। ऐसा क्यों हुआ कि इतने साल बीते मगर किसी भी सरकार ने इसकी परख करने या दुरुपयोग रोकने का प्रयास नहीं किया? सरकारी अमला भी लूट का बटाईदार हो गया है। क्या वजह है कि अधिकतर एनजीओ के मालिक अवकाश प्राप्त प्रशासकगण हैं। कई पुराने आईएएस अफसर अथवा उनके कुटुंबीजन! भारत के 44वें प्रधान न्यायाधीश त

80 के चश्मे से दुनिया: हरिकृष्ण रावल

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           फोटो: हरिकृष्ण रावल (लेखक) आज मैं बाज़ार से निकल रहा था। धनतेरस का दिन था। बाज़ार में बहुत भीड़ थी और दुकानें नई दुल्हन की तरह सजी थी। लोग अपनी ज़रूरत और शौक़ कि कई आवश्यक और अनावश्यक चीज़ें ख़रीद रहे थे। ये सब देख अचानक मुझे बचपन की दिवाली याद आ गई और मुँह से निकला ‘वाह वह भी क्या दिवाली थी’। हमारे ज़माने में दिवाली की तैयारियां कई दिन पहले से ही शुरू हो जाती थी। पुरुष बाहर का काम संभालते थे, महिलाएँ रसोई का, छोटी लड़कियों पूजा का सामान तैयार करती थी और हम लड़के सजावट की तैयारी करते थे। सबके काम बँधे थे और आस पड़ोस के लोग आकर भी काम में हाथ बंटा दिया करते थे। घर कच्चे पक्के होते थे पर रिश्ते मज़बूत। घर की कच्ची रसोई के एक हिस्से में मंदिर हुआ करता था जिसके आस पास दिवाली की पूजा का स्थान बनाया जाता था। इस हिस्से को पहले अच्छी तरह मिट्टी से लेप लिया जाता था फिर पूजा की तैयारी की जाती थी थी। दिवाली पूजा के लिए घर के सभी चाँदी के बर्तन बाहर निकल आते थे और सभी बच्चों को उन्हें चमकाने का काम सौंपा जाता था। उस ज़माने में चाँदी की क़ीमत बहुत थी और चाँदी के बर्तनों का अपने हाथ में ह

श्रीकृष्ण परिपूर्णता हैं, वे इकाई हैं और अनंत भी, प्रकृति की चरम संभावना, सहज संसारी, असाधारण मित्र हैं: हृदयनारायण दीक्षित

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  श्रीकृष्ण परिपूर्णता हैं। वे इकाई हैं और अनंत भी। प्रकृति की चरम संभावना। सहज संसारी। असाधारण मित्र। अर्जुन से यारी हो गई तो उसका रथ हाँका। उसे विषाद हुआ। संपूर्ण तत्व-ज्ञान उड़ेल दिया। संशय नहीं मिटा तो दिखा दिया विश्वरूप। हम सब विश्व में हैं। विश्व का भाग हैं। विश्व में रमते हैं। लेकिन विश्वदर्शन में रस नहीं लेते। सूर्योदय के उगने का भी दर्शन नहीं करते। हवाएँ सहलाती आती हैं, हम उन्हें धन्यवाद भी नहीं देते। अनेक रूपों से भरा-पूरा यह विश्व हमारे भीतर विस्मय नहीं पैदा करता। गीताकार के अनुसार श्रीकृष्ण ने अपने भीतर विश्वरूप दिखाया। सच है यह बात। हमारे आपके सबके भीतर भी है विश्वरूप। श्रीकृष्ण जैसा मित्र मिले तो बात बने, या अर्जुन जैसे विषादी जिज्ञासु हों हम। तो बन सकती है बात। श्रीकृष्ण ऐसी ही संभावना हैं। नाचते अध्यात्म के रसपूर्ण प्रतीक। नटखट, मनमोहन और बिन्दास रसिया।  श्रीकृष्ण भारत की दिव्यगंध हैं। संपूर्ण रसों के महारस, मधुरस। नृत्यरत भगवत्ता। निष्काम कामना। आधुनिक दार्शनिक कांट का परपजलेस परपज। जीवन के हरेक रंग और आयाम में उनकी उपस्थिति है। वे रूप, रंग, हाव, भाव और गतिशीलता में सुद

आज़ादी की 75 वीं वर्षगाँठ के दौरान कहाँ खड़ी है देश की मातृ शक्ति!

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मेडिकल जनरल ग्लोबल हेल्थ (बीएमजे) के अध्ययन में यह दावा किया गया है कि लिंग चयन के दुष्परिणाम के कारण 10 वर्षों में 4.7 मिलियन लड़कियों की संख्या में कमी हो जाएगी (सोनम लववंशी, स्वतंत्र लेखिका) इस बार 15 अगस्त को हम देश की आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मनाने जा रहें हैं। बेशक यह हम सभी भारतीयों के लिए गर्व की बात है। इस आजाद भारत में महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती नजर आ रही है। हमारे देश की महिलाओं ने धरती से लेकर आसमान तक अपने नाम का लोहा मनवाया है। आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां महिलाओं ने अपनी कामयाबी के झंडे बुलंद ना किए हो लेकिन इन सबके बावजूद एक दर्दनाक पहलू यह भी है कि आज भी पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की अनदेखी की जा रही है। यह एक ऐसा अभिशाप है, जिसे महिलाओं के जन्म के साथ ही उनके मुकद्दर में लिख दिया जाता है। एक अध्ययन से इस बात की जानकारी मिलती है कि आने वाले 10 सालो में लिंग परीक्षण के कारण दुनिया में 50 लाख लड़कियों की कमी हो जाएगी तो वही इस सदी के अंत तक बेटों की चाहत में 2.2 करोड़ बेटियां कम पैदा होने का अनुमान लगाया जा रहा है। मेडिकल जनरल ग्लोबल हेल्थ (बीएम

'प्रकृति आत्मा है तो आत्मा से परमात्मा के मिलन का साधन ही सावन माह'

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(सोनम लववंशी)  स्वतंत्र लेखिका एवं टिप्पणीकार यह सत्य है कि हम आधुनिक होती जीवनशैली और बाहरी चकाचौंध में अपने वास्तविक मूल्यों को दरकिनार कर रहे हैं। लेकिन हम भले ही आधुनिकता का चोला क्यों न ओढ़ ले पर प्रकृति हमें हमारी संस्कृति से जोड़ने का कार्य करती है। जी हां यह सच है कि हम ज़िन्दगी को जिस नजरिये से देखते है जिंदगी हमें वैसी ही नजर आने लगती है। यह हमारी आस्था और मन का विश्वास ही तय करता है कि हमें ज़िन्दगी को किस चश्मे से देखना है। जीवन में आशा-निराशा, सुख-दुःख और जीवन-मरण की प्रक्रिया अपनी गति से चलती रहती है। वहीं निर्वाद सत्य यह भी है कि अगर आज सुख है, तो निश्चय ही कल दुःख भी आएगा, क्योंकि जीवन छणभंगुर है और इससे बचकर कोई नहीं रह पाता है। फ़िर चाहें वह राजा हो या रंक। इस भौतिक संसार मे जो भौतिकता से परे है। वही सिर्फ़ शिव है और शिव ही आदि और अनन्त। भगवान शिव को 'देवों का देव महादेव' कहा जाता है। वे ज्ञान, वैराग्य के परम आदर्श है। कहते है ईश्वर सत्य है,  सत्य ही शिव है और शिव ही सुन्दर है। इसलिए भगवान शिव का एक रूप सत्यम, शिवम और सुंदरम है। शिव के बिना प्रकृति की कल्पना आधारहीन

राष्ट्रीय स्तर की स्वास्थ्य, आर्थिक और सामाजिक संकटों के समाधान की पड़ताल

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(शाश्वत तिवारी) लखनऊ। कोविड-19 महामारी 2020 की पहली तिमाही में पूरी दुनिया में फैल गई, जिससे वैश्विक जैव-सामाजिक-आर्थिक अव्यवस्था सामने आई। इस महामारी ने बेशुमार सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और रणनीतिक असर डाला, लोगों को व्यक्तिगत स्तर पर, समाजों में और राज्यों के स्तर पर असंख्य चुनौतियां सामने आईं। इंडिपेंडेंट कमीशन ऑन डेवलपमेंट ऐंड हेल्थ इन इंडिया (आईसीडीएचआई) ने “कोविड-19 ग्लोबल ऐंड नैशनल रिस्पांसः लेसंस फॉर फ्यूचर” नाम से एक रिपोर्ट तैयार कराई, जिसमें कोविड-19 के कारण पैदा हुई वैश्विक के साथ साथ राष्ट्रीय स्तर की स्वास्थ्य, आर्थिक और सामाजिक संकटों के समाधान की पड़ताल की गई है। यह रिपोर्ट विश्व के जाने माने पेशेवरों और शोधार्थियों के एक समूह ने तैयार की और इसमें कोविड-19 की गंभीर हकीकत से मुकाबला करने के लिए अनुभव से सीखने की कवायद की गई है।  इस रिपोर्ट में महामारी को दो प्रमुख भागों के माध्यम से प्रकाश डाला गया है- वैश्विक और राष्ट्रीय प्रतिक्रिया। वैश्विक प्रतिक्रिया में एक देश से दूसरे देश के बीच तुलनात्मक अध्ययन, रोकथाम और प्रबंधन की रणनीति, पूरी दुनिया से कोविड-19 की कहानियों का ए

माँ दुर्गा का रूप है नारी शक्ति

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  डॉ. वंदना सेन भारत में सदियों से प्रचलित पौराणिक मान्यताओं के अनुसार नारी को महाशक्ति की संज्ञा दी गई है। जहां नारी का आदर और सम्मान होता है, वहां दैवीय वातावरण विद्यमान रहता है। दैवीय वातावरण के बारे में अध्ययन किया जाए तो यही परिलक्षित होता है कि वहां आसुरी प्रवृत्तियों का पूरी तरह से विलोपन हो जाता है और ऐसी सांस्कृतिक किरणों का प्रकाश प्रस्फुटित होता है, जिसका सानिध्य प्राप्त कर हर प्रकार के विकार दूर हो जाते हैं। कहा जाता है जहां नारी की पूजा की जाती है। वहां देवता स्वयं उपस्थित होते हैं। भारत में सनातन काल से नारी को जगत जननी के रूप में भी स्वीकार किया गया है। छोटी छोटी बालिकाएं साक्षात माता दुर्गा ही रूप होती हैं। इस प्रकार यही कहा जा सकता है कि समाज के अंदर भक्ति का प्राकट्य तभी हो सकता है, जब नारी को मां दुर्गा के प्रतिरूप में देखा जाए। धर्म युक्त वातावरण निर्मित करने के लिए नारी तू नारायणी का भाव लेकर अपने मन में पूजा की थाली स्थापित कर हम सभी को साधक और आराधक की भूमिका के लिए अग्रसर होना होगा। तभी हम आसुरी प्रवृत्तियों को पराजित कर पाने में सक्षम होंगे। भारत देश में शक्ति

कविता: 'ज़रूरी था क्या!'

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' ज़रूरी था क्या!'  ज़ायका कड़वा अपनाना ज़रूरी था क्या!! सिर्फ़ सच ही सुनाना ज़रूरी था क्या!! रूह-ए-ईमान बेईमानी से पूछती है मुझे सरेआम रुसवा कराना ज़रूरी था क्या!! रौशनी माँगने आये थे जो लोग मुझसे ख़ुद मेरा मोम बन जाना ज़रूरी था क्या!! किसी को नहीं अब ईमान की तलब फ़िर भी अपनी क़िस्मत आज़माना ज़रूरी था क्या!! अब छोड़ दे 'विनीता' ये घर काम का नहीं रूह को जिस्म का क़ैदख़ाना ज़रूरी था क्या!!                      विनीता जायसवाल                     खड़गपुर, पश्चिम बंगाल

आंदोलन की आड़ में देश को बदनाम करने की साजिश तो नहीं?

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    सोनम लववंशी, स्वतंत्र लेखिका भोपाल। जहां खूबियां होती है, वहां खामियां भी जरूर रहती है। किसान आंदोलन के नाम पर हो रहे आंदोलन से तो यही प्रतीत हो रहा है मानो अब आंदोलन अपने स्वार्थ पूर्ति तथा राजनीतिक लाभ का जरिया बनकर रह गया हैं। इतना ही नहीं मानो लगता है, कि आंदोलनकारियों को न ही देश के मान से कोई सरोकार है, और न ही आंदोलन से जनता को हो रही परेशानियों की कोई चिंता। 26 जनवरी को किसान आंदोलन के नाम पर ट्रैक्टर रैली की आड़ में हुई हिंसा, लाल किले पर राष्ट्रध्वज के अपमान की घटना न केवल दुर्भाग्यपूर्ण थी। बल्कि इस घटना ने देश के लोकतंत्र को भी वैश्विक पटल पर शर्मशार किया है। किसान आंदोलन के नाम पर देश मे हो रही राजनीति न केवल देश तक सीमित रही है बल्कि अब विदेशी शक्तियां भी आंदोलन को एक अलग ही मोड़ देने में लगी है। जिनका केवल और केवल एक ही मकसद है कि कैसे वैश्विक पटल पर भारत को नीचा दिखाया जा सके।  जिस किसान आंदोलन का आगाज शांतिपूर्ण ढंग से हुआ था, उसका अंजाम इतना दुर्भाग्यपूर्ण होगा इसकी कल्पना शायद ही किसी भारतीय ने की होगी। 2 महीने से शांतिपूर्ण चल रहे आंदोलन में 26 जनवरी को हुई घटना न

बुजुर्गों की सफाई से नहीं मन की स्वच्छता से बेहतर देश बनेगाः सोनम लववंशी

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  सोनम लववंशी स्वतंत्र लेखिका भोपाल। किसी ने सच ही कहा है कि हम सब कुछ बदल सकते है, लेकिन अपने पूर्वज नहीं। उनके बिना न ही हमारा वर्तमान सुरक्षित है और ना ही भविष्य की नींव रखी जा सकती है। हमारे पूर्वज ही इतिहास से भविष्य के बीच की कड़ी होते है। इन सबके बावजूद अफसोस की आज हम अपने पूर्वजों का सम्मान तक नहीं कर पा रहे है और न ही उनकी दी हुई सीख पर अमल कर पा रहे हैं। ‘‘मातृ देवों भवः पितृ देवों भवः‘‘ से अपने जीवन का आरम्भ करने वाला मनुष्य इतना स्वार्थी हो जाएगा कि वह अपने पहले गुरु यानी मां और पिता को ही वृद्धावस्था में दरकिनार कर देगा। इसकी कल्पना तो किसी माँ बाप ने नहीं की होगी।  चलिए अब बीते दिनों मध्यप्रदेश की औद्योगिक नगरी इंदौर में घटित एक घटना का जिक्र करते हैं। जिसने पूरी मानव जाति को शर्मसार कर दिया। इंदौर नगर निगम स्वच्छता में नम्बर वन बने रहने की चाहत में इतना नीचे गिर गया कि वह अपने ही शहर के बुजुर्गों को जानवरों की तरह ट्रक में भरकर शहर के बाहर फेंक दिया। ऐसे में समझ नहीं आता कि कहां गई वह संस्कृति जिसमें हमें बड़ो का सम्मान करने की शिक्षा दी जाती है। भारतीय परंपरा में तो पेड़-प

युवाओं की प्रेरणा हैं स्वामी विवेकानंदः डॉ. वन्दना सेन

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  ग्वालियर। स्वामी विवेकानंद की वाणी भारतीयता से ओतप्रोत थी। विवेकानंद जब भी बोलते थे, उनके एक एक शब्द में भारत का प्रस्फुटन होता था। वे निश्चित रूप से उस भारतीय संस्कृति के संवाहक थे, जो समस्त विश्व के दिशादर्शक हैं। तभी तो वे कहते थे कि भारतीय संस्कृति केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि वैश्विक प्रगति का आधार है। वर्तमान समय में भी स्वामी विवेकानंद के विचार उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने पुरातन काल में होते थे। स्वामीजी युवाओं को शक्तिशाली बने रहने का भी उपदेश देते थे। उनका मानना था कि जिस देश का युवा निर्बल और शक्तिहीन होगा, वह राष्ट्र कभी शक्ति संपन्न नहीं हो सकता। हिंदुत्व के बारे में स्वामी विवेकानंद की स्पष्ट धारणा थी। वे अपनी वाणी के माध्यम से यह भी कहते थे कि तुम तब और केवल तब ही हिन्दू कहलाने के अधिकारी हो, जब इस नाम को सुनने मात्र से तुम्हारे शरीर में विद्युत प्रवाह की तरह तरंग दौड़ जाए और हर व्यक्ति सगे से भी ज्यादा पसंद आने लगे। स्वामी विवेकानंद सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार की तरह ही देखते थे। शिकागो में स्वामी विवेकानंद का प्रबोधन इसी भाव धारा का प्रवाहन था। जिसकी गूंज आज भी ध्व

भारतीय चिन्तन की मूल भूमि है लोकतंत्र: हृदयनारायण दीक्षित

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  हृदयनारायण दीक्षित लखनऊ। भारतीय चिन्तन की मूल भूमि लोकतंत्र है। अनेक विचार हैं। 8 प्रतिष्ठित दर्शन है। विचार भिन्नता है। सब मिलकर लोकतंत्र की भावभूमि बनाते हैं। लोक और जन वैदिक पूर्वजों के प्रियतम विचार रहे हैं। लोक बड़ा है। आयतन में असीम लेकिन विश्वास में हृदयग्राही। लोक प्रकाशवाची है। भारतीय चिन्तन में लोक एक नहीं अनेक हैं। यजुर्वेद के अंतिम अध्याय में कई लोकों का उल्लेख है, “असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः असुरों के अनेक लोक हैं। वे अंधकार से आच्छादित हैं। आत्मविरोधी इन्हीं में बारंबार जाते हैं।” यहां अज्ञान अंधकार आच्छादित लोक का वर्णन है। इसके पहले ऋग्वेद के पुरूष सूक्त में भी कई लोकों का उल्लेख है। यहां ‘पुरूष’ संपूर्णता का पर्याय है। कहते हैं, “यह विश्व उस पुरूष की महिमा है। झलक मात्र है। पुरूष इससे बड़ा है। विश्व उसका एक भाग (पाद) है। तीन भाग अमृत लोक में हैं।” जान पड़ता है कि अमृतलोक का आयतन इस विश्व से तीन गुणा बड़ा है। जो भी हो ‘लोकों’ की धारणा प्राचीन है। मृत्यु की सूचना से शोकग्रस्त लोग मृत्युलोक, पितरलोक, स्वर्गलोक आदि की चर्चा करते हैं। भारत की सामान्य चर्चा में भी ‘ल

राजनीतिक हिंसा सभ्य समाज के लिए खतरनाकः सोनम लववंशी

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भोपाल। पश्चिम बंगाल में यूं तो चुनाव आगामी साल में होना है। लेकिन अभी से ही चुनावी सरगर्मी जोर पकड़ रही है। एक ओर तो सभी राजनीतिक दल अपनी अपनी जमीन तैयार करने में लगे है। तो दूसरी और आये दिनों हिंसा की घटनाएं भी बंगाल में बढ़ती जा रही है। वैसे तो पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का अपना पुराना इतिहास रहा है। लेकिन अब ये हिंसा तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के वर्चस्व की लड़ाई बनती जा रही है। एक तरफ तृणमूल कांग्रेस अपनी जमीन बचाने में लगी है तो वही भाजपा अपनी विस्तारवादी नीति के तहत पश्चिम बंगाल में भी कमल खिलाने की जद्दोजहद में लगी है। ऐसे में कहीं न कहीं यही विस्तारवाद पश्चिम बंगाल की राजनीतिक सियासत में उथल पुथल का कारण बन गयी है। वैसे पश्चिम बंगाल में रक्त रंजिश का अपना पुराना इतिहास रहा है। जिसकी शुरुआत लार्ड कर्जन के बंगाल विभाजन के विरोध में 1905 में शुरू हुई थी। इसके बाद से ही बंगाल में हिंसा का दौर बद्दस्तूर जारी है। गौर करने वाली बात तो यह है कि चुनावी हिंसा में कोई एक दल शामिल नही है। बल्कि समय समय पर सभी दलों पर यह आरोप लग चुके है। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के शासन काल में तो चुनावी

लव-जिहाद का बढ़ता चलन एक दूषित मानसिकता का परिचायक: सोनम लववंशी

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‘‘लोग क़त्ल भी करे तो चर्चा नहीं होती, हम आह भी भरें तो बदनाम हो जाते है‘‘ सोनम लववंशी (स्वतंत्र लेखिका) भारत में लव जिहाद के बढ़ते मामलों से यह साफ पता चल रहा है कि कैसे एक सम्प्रदाय दूसरे धर्म की लड़कियों को अपना शिकार बनाते है। वह भी अपनी विस्तारवादी सोच की वजह से। सब जानते है कि लव जिहाद आज आतंकवाद की तरह हमारी वसुधैव कुटुम्बकम की परंपरा में विष घोल रहा है लेकिन अफसोस की ऐसे गम्भीर विषय पर बुलंद आवाज़ नहीं उठती। भारतीय समाज आज उन्हीं मुद्दों पर बात करना पसंद करने लगा है जो दूसरों को अच्छा लगे। हमने धर्म को भी अपनी सुविधा के अनुसार धारण करना सीख लिया है। सेक्युलर बनने की चाह में हम अपने ही धर्म पर हो रहे अत्याचार के विरुद्ध आवाज तक नही उठाते है। अब इससे बड़ा दुर्भाग्य ओर क्या होगा? चलिए एक दफ़ा मान लिया हिन्दू-मुस्लिम भगवान ने किसी को नहीं बनाया बल्कि इंसान बनाया। इसके बाद भी सिर्फ़ एक समुदाय सहन करता जाएं और दूसरा विस्तार यह सोच तो कतई सही नहीं। एक अपने धर्म की रक्षा के लिए क़दम उठाएं तो कट्टरवादी और दूसरा कुछ भी कर लें फिर भी वह गंगा-जमुनी तहज़ीब का खेवनहार। क्या अजीबोगरीब परिभाषाएं लिखी