कविता: 'ज़रूरी था क्या!'
'ज़रूरी था क्या!'
ज़ायका कड़वा अपनाना ज़रूरी था क्या!!
सिर्फ़ सच ही सुनाना ज़रूरी था क्या!!
रूह-ए-ईमान बेईमानी से पूछती है
मुझे सरेआम रुसवा कराना ज़रूरी था क्या!!
रौशनी माँगने आये थे जो लोग मुझसे
ख़ुद मेरा मोम बन जाना ज़रूरी था क्या!!
किसी को नहीं अब ईमान की तलब
फ़िर भी अपनी क़िस्मत आज़माना ज़रूरी था क्या!!
अब छोड़ दे 'विनीता' ये घर काम का नहीं
रूह को जिस्म का क़ैदख़ाना ज़रूरी था क्या!!
विनीता जायसवाल
खड़गपुर, पश्चिम बंगाल
Congrats and deeply writing
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