बुजुर्गों की सफाई से नहीं मन की स्वच्छता से बेहतर देश बनेगाः सोनम लववंशी
चलिए अब बीते दिनों मध्यप्रदेश की औद्योगिक नगरी इंदौर में घटित एक घटना का जिक्र करते हैं। जिसने पूरी मानव जाति को शर्मसार कर दिया। इंदौर नगर निगम स्वच्छता में नम्बर वन बने रहने की चाहत में इतना नीचे गिर गया कि वह अपने ही शहर के बुजुर्गों को जानवरों की तरह ट्रक में भरकर शहर के बाहर फेंक दिया। ऐसे में समझ नहीं आता कि कहां गई वह संस्कृति जिसमें हमें बड़ो का सम्मान करने की शिक्षा दी जाती है। भारतीय परंपरा में तो पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, जानवरों यहां तक की पत्थरों की भी पूजा करने का विधान बताया गया है। फिर आज हमारे समाज ने अपने ही बुजुर्गों को दर दर की ठोकर खाने के लिए कैसे छोड़ दिया है। यहां चंद पंक्तियां याद आ रही है। जो रामधारी सिंह दिनकर की कृति कुरुक्षेत्र से ली गई है। जिसमें युधिष्ठिर भीष्म पितामह के पास जाते हैं है। फिर भीष्म पितामह कहते हैं कि ‘‘धर्मराज यह भूमि किसी की, नहीं क्रीत है दासी, हैं जन्मना समान परस्पर, इसके सभी निवासी‘‘। सबको मुक्त प्रकाश चाहिए, सबको मुक्त समीकरण, बाधारहित विकास, मुक्त आशंकाओं से जीवन।
अब ऐसे में अगर इस धरती पर जन्म लेने वाले सभी व्यक्ति के पास समान अधिकार है। फिर कोई सरकार या सरकारी मुलाजिम कैसे किसी को सिर्फ इसलिए भगा सकता क्योंकि वह बुजुर्ग और भिखारी है। क्या हम सिर्फ बातों में ही संस्कृति के खेवनहार बचें हैं। एक तरफ तो समाज मे बच्चें बड़े होकर अपने माता-पिता को दर-दर भटकने के लिए छोड़ देते। ऊपर से अगर शासन-प्रशासन भी निर्लज्जता पर उतारू हो गया। फिर कहाँ जाएंगे बुजुर्ग लोग। वैसे हम तो वसुधैव कुटुम्बकम की भावना रखने वाले देश के लोग हैं। फिर आधुनिकता की दौड़ में इतना अंधे कैसे हो रहें कि अपने संस्कारों को ही तिलांजलि देने पर तुले हैं। क्या यही आधुनिकता है, जिसमें अपनों का सम्मान करना ही भूल जाए? हम तो विश्वगुरु बनने की राह में आगे बढ़ रहे है फिर कैसे अपने जीवन के प्रथम गुरु के साथ बदसलूकी पर उतर आए? ये सच है कि भागदौड़ भरी जिंदगी में हम अपने लिए ही समय नही निकाल पाते है, तो फिर अपनों की जिम्मेदारियों का ख्याल कैसे रखें? लेकिन जिस मां- बाप ने जन्म दिया उसकी जिम्मेदारी से मुंह तो मोड़ नहीं सकते। हम यह क्यों भूल जाते है कि जिस माँ ने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा दर्द सहन कर हमें इस दुनिया में जन्म दिया है। जिस पिता ने हमें उंगली पकड़कर चलना सीखाया। जिसने हमे इस लायक बनाया की हम सही गलत का फर्क समझ सके। फिर जिस वक्त उन्हें हमारे सहारे की जरूरत फिर हम कैसे मुकर सकते?
एजेबल नामक एक गैर सरकारी संगठन के सर्वे में यह बात सामने आई है कि देश में हर चैथा बुजुर्ग आदमी अकेले रहने को मजबूर है। 2018 में किए गए सर्वेक्षण की माने तो देश के 60 वर्ष से अधिक आयु वाले 52 प्रतिशत बुजुर्ग पारिवारिक उत्पीड़न का शिकार हो रहे है। 63 फीसदी बुजुर्ग स्वयं इस बात को मानते है कि उनका अपना ही परिवार उन्हें बोझ मानता है। हमारे संविधान का अनुच्छेद-21 प्रत्येक मनुष्य को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है। जब अपने ही इस अधिकार में बाधा बन जाए तो समाज को यह समझना चाहिए कि हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे है। वैसे हमारे समाज की यह बहुत बड़ी बिडम्बना है कि हम बेटों की चाहत में इतने अंधे हो जाते है कि बेटियों को वह प्यार ही नही दे पाते है जिसकी वे असल हकदार होती है। आज भी हमारे समाज मे पुरुषवादी मानसिकता भरी हुई है। हम आज भी बेटे को कुलदीपक मानते है। तो वही बेटियों को पराया धन मानते है। यही कुलदीपक अपने ही जन्मदाता को वृद्धा आश्रम छोड़ कर चले जाते है। उन्हें जीते जी मार डालते है। हमारे समाज मे भेदवाव की जड़े भी समाज को खोखला कर रही है। जहां बेटियों को तो अपना समझा जाता है लेकिन बहुओं को वह सम्मान नही दिया जाता है। लोग तो यह तक भूल जाते है कि आज जो हमारी बहु है वह किसी ओर की बेटी भी होगी। लेकिन यही दोहरी मानसिकता समाज मे कलह की सबसे प्रमुख वजह बन जाती है।
आज न केवल समाज को जागरूक होने की आवश्यकता है बल्कि बुजुर्गों पर हो रहे अत्याचार पर सरकार को भी कड़े कानून बनाना चाहिए। जिससे हमारे बुजुर्ग भी सम्मनपूर्वक अपना जीवन जी सके। हमे समझना होगा कि हमारे बुजुर्ग हमसे क्या कहना चाह रहे है। आज हमने उन्हें सुनने की बजाए अपनी सुनाना शुरू कर दिया है। यही वजह है कि आज समाज मे आपराधिक प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। आज हम पुरानी इमारतों को तो सहेजकर रखना चाहते है, वही हमारे घर के बुजुर्गों को बेसहारा आंसू बहाने के लिए छोड़ रहे है। जो बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।
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