राजनीतिक हिंसा सभ्य समाज के लिए खतरनाकः सोनम लववंशी


भोपाल। पश्चिम बंगाल में यूं तो चुनाव आगामी साल में होना है। लेकिन अभी से ही चुनावी सरगर्मी जोर पकड़ रही है। एक ओर तो सभी राजनीतिक दल अपनी अपनी जमीन तैयार करने में लगे है। तो दूसरी और आये दिनों हिंसा की घटनाएं भी बंगाल में बढ़ती जा रही है। वैसे तो पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का अपना पुराना इतिहास रहा है। लेकिन अब ये हिंसा तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के वर्चस्व की लड़ाई बनती जा रही है। एक तरफ तृणमूल कांग्रेस अपनी जमीन बचाने में लगी है तो वही भाजपा अपनी विस्तारवादी नीति के तहत पश्चिम बंगाल में भी कमल खिलाने की जद्दोजहद में लगी है। ऐसे में कहीं न कहीं यही विस्तारवाद पश्चिम बंगाल की राजनीतिक सियासत में उथल पुथल का कारण बन गयी है। वैसे पश्चिम बंगाल में रक्त रंजिश का अपना पुराना इतिहास रहा है। जिसकी शुरुआत लार्ड कर्जन के बंगाल विभाजन के विरोध में 1905 में शुरू हुई थी। इसके बाद से ही बंगाल में हिंसा का दौर बद्दस्तूर जारी है। गौर करने वाली बात तो यह है कि चुनावी हिंसा में कोई एक दल शामिल नही है। बल्कि समय समय पर सभी दलों पर यह आरोप लग चुके है। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के शासन काल में तो चुनावी रंजिश में हुई हत्या इतिहास के पन्नो में दर्ज है। 1977 से 1996 तक 28 हजार लोग राजनीतिक हिंसा की बलि चढ़ चुके है। राजनीतिक हिंसा का यह अब तक का राज्य का सबसे बड़ा आंकड़ा है। 

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (छब्त्ठ) के अनुसार पश्चिम बंगाल में 2018 में सबसे अधिक राजनीतिक हत्याएं दर्ज की गई। भारत मे 54 राजनीतिक हत्या में अकेले 12 बंगाल में हुई। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि 1999 और 2016 के बीच 18 सालों में हर साल करीब 20 राजनीतिक हत्या हुई। पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव हो या फिर स्थानीय निकाय का चुनाव हो हिंसा के बिना बंगाल के चुनाव की राजनीति नही होती है। भाजपा बंगाल फतह करने की राह में आगे बढ़ रही है। तो वही ममता के किले की दीवारें खुद उनकी अपनी पार्टी के नेता ढहाने में कोई कोर कसर नही छोड़ रहे है। दीदी पर इस समय दोहरा संकट मंडरा रहा है। एक ओर तो उन पर हिंसा भड़काने के आरोप लग रहे है तो वही उनकी पार्टी के नेता उनका दामन छोड़ भाजपा का दामन थाम रहे है। ऐसे में हिंसा बढ़ना स्वभाविक बात है। 

बंगाल की सांस्कृतिक विरासत का अपना स्वर्णिम इतिहास रहा है। जो बंगाल अपनी प्रतिभा, कला, संगीत, सिनेमा , साहित्य से विश्व भर में विख्यात था आज वही बंगाल रक्त रंजिश राजनीति के कारण विश्व भर में बदनाम हो रहा है। बंगाल की राजनीतिक हिंसा आए दिनों मीडिया रिपोर्ट की सुर्खियां बन रही है। क्या यह वही बंगाल है जिसकी माटी में महाप्रभु चैतन्य, रामकृष्ण परमहंस, रविन्द्र नाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुष के विचार विश्व को नई दिशा और दशा प्रदान करते थे। आज उसी बंगाल में राजनीति के नाम पर खूनी खेल का नाच हो रहा है। सभी राजनीतिक दलों के अपने वैचारिक मतभेद होते है, लेकिन यह मतभेद बंगाल में हिंसा के रूप में प्रकट होते है। अफसोस कि जिस बंगाल ने ष्सुजलाम सुफलाम शस्यश्यामलाष् के संगीत से देश का मान बढ़ाया हो। आज उसी बंगाल में माटी मानुष की लड़ाई खूनी संघर्ष का रूप ले चुकी है। 

बंगाल में जो भी पार्टी सत्ता में रहती है उसी पर हिंसा और हत्या के आरोप लगते है। बंगला में एक कहावत है - जेई जाए लंका, सेई होए रावण इसका सीधा सा अर्थ है कि जो भी लंका जाता है, वही रावण बन जाता है। बंगाल की राजनीति में यह कहावत एक दम सटीक बैठती है जो भी बंगाल की राजनीति में सत्ता पर काबिज होता है, वह अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए हिंसा का रूप अख्तियार कर ही लेता है। अब यह तो समय ही बताएगा कि बंगाल की राजनीति में किसके माथे ताज सजता है और कौन सत्ता से बेदखल होता है। चुनाव आते आते बंगाल की राजनीति की तस्वीर क्या रूप दिखाएगी यह आने वाला समय ही बताएगा। इन सब के बीच कहीं न कहीं राजनीतिक हिंसा एक संवैधानिक देश के लिए उचित नहीं। यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है। सभ्य समाज में हिंसा का कोई स्थान नही होना चाहिए। ऐसे में अगर समाज और देश को राह दिखाने वाले लोग ही हिंसा की राह अख्तियार कर लेंगे फिर सामाजिक स्थिति पिछड़ेपन का शिकार तो होगी ही साथ ही कानून व्यवस्था भी चैपट हो जाएगी। इसलिए बेहतर व्यवस्था के निर्माण पर जोर देना सियासतदां का कर्तव्य बनना चाहिए न कि व्यवस्था को चैपट करना।  (नोटः- यह लेख, लेखिका के अपने विचार हैं)


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